रविवार, 31 मई 2015

आवाज़ आती है!
(कविता-संचयन: रचनाकार महेन्द्रभटनागर)
समीक्षक: डॉ॰ सुधेश

महेंद्रभटनागर जी के नाम से मैं लम्बे समय से परिचित हूँ। मुझे याद है कि 1959 में ‘हिन्दी-भवन’ में (जब वह ‘कनाट प्लेस’ में ‘रीगल सिनेमा’ के सामने बनी बैरकों के किसी कक्ष में था) चेकोस्लोवेकिया के हिन्दी-विद्वान प्रोफ़ेसर डॉ॰ ओडोनल स्मेकल के सम्मान में आयोजित गोष्ठी में अंत में उन्होंने अपने वक्तव्य में महेंद्रभटनागर की किसी कविता की पंक्तियाँ सुनाई थीं। तो 1959 में एक विदेशी के मुख से महेंद्रभटनागर जी की कविता का उल्लेख मेरे मानस में बस गया था। कह सकता हूँ कि तब से अर्थात 55 वर्षों से मैं उन्हें कवि के रूप में जानता हूँ।

महेंद्रभटनागर जी मुझे गीतकार लगते हैं। वे मूलतः गीतकार हैं। प्रस्तुत कृति में कई सफल गीत हैं, पर वे परम्परागत रोमानी गीत नहीं हैं, बल्कि यथार्थ की चेतना से सम्पन्न गीत हैं। जो रचनाएँ गीत नहीं हैं, उनमें गीत का आवश्यक तत्व गेयता विद्यमान है। गेयता के लिए आवश्यक है लय, जो छन्द का भी प्राण है। इस संदर्भ में उनकी कविता ‘आज़ादी का त्योहार’ की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

    आज़ादी का त्योहार मनाता हूँ !
    अपने गिरते घर के टूटे छज्जे पर
    कर्ज़ा लेकर
    आज़ादी के दीप जलाता हूँ !
    अपने सूखे अधरों से
    आज़ादी के गाने गाता हूँ !
    क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है !
    मैंने अपने हाथों से
    इसकी सींची फुलवारी है !

कवि आज़ादी का स्वागत करता है, पर आज़ादी की असलियत भी खोल देता है, जिसमें उसे आज़ादी का स्वागत करने के लिए कर्ज़ लेना पड़ता है। यहाँ आज़ादी के स्वागत में उसका विद्रूप व्यंग्य में ढल जाता है।

महेन्द्रभटनागर जी के गीतों में विरह का रोना प्रायः नहीं है, बल्कि जीवन की विजय का गान है। जैसे ‘साम्य’ शीर्षक रचना में वे लिखते हैं:

    गाता हूँ, विजय के गीत गाता हूँ।
    मृत्यु पर, जीवन जगत की जीत गाता हूँ।
    अति प्रिय वस्तु
    जीवन-विस्फुरण की
    बेधड़क जयकार गाता हूँ।
    क़ब्रिस्तान के आकाश में जो गूँजते हैं स्वर
    परिन्दों के, स्वच्छन्द रिन्दों के
    अनुवाद हैं — मेरी जीवन-भावनाओं के।
    सहचार हैं — मेरी जीवन-अर्चनाओं के।

आज हमारा देश घरेलू और बाहरी हिंसा, हत्याओं, विस्फोटों, लघु एवं परोक्ष युद्धों की विभीषिका में जी रहा है। चारों ओर से देश को विरोधी शक्तियों ने घेर रखा है। जिसका परिणाम यु्द्ध हो सकता है। पर, महेन्द्रभटनागर जी ‘बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे’ शीर्षक कविता में लिखते हैं:
   
    कुछ लोग
    चाहे ज़ोर से कितना
    बजाएँ युद्ध का डंका
    पर, हम कभी भी
    शांति का झंडा
    ज़रा झुकने नहीं देंगे।
    हम कभी भी
    शांति की आवाज़ को
    दबने नहीं देंगे।

वे ‘अमिताभ’ शीर्षक कविता में गौतम बुद्ध की आज की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हैं। ‘इतिहास का एक पृष्ठ’ कवि की यथार्थ चेतना का सूचक है। ‘अदम्य’ शीर्षक कविता उनकी आधुनिक चेतना और जिजीविषा की संकेतक है।

महेन्द्रभटनागर जी की छंद-मुक्त कविताओं में भी लयात्मकता है। बाद की कविताओं में वे मृत्यु पर जीवन की विजय की घोषणा करते हैं। वे सहर्ष मृत्यु का स्वागत करते हैं। उनका तर्क है कि मृत्यु का भय मानव को ईश्वर की याद दिलाता है। मृत्यु न होती तो ईश्वर की कल्पना भी न होती।  जीवन-सन्ध्या में निराशा, विषाद, एकाकीपन मनुष्य को घेर लेते हैं, पर महेन्द्रभटनागर जी की परवर्ती कविताओं में मृत्यु का भय नहीं, बल्कि जीवन के प्रति गहरा लगाव और उत्कट जीवनेषणा के दर्शन होते हैं।
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