सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

INTERVIEW





कवि महेंद्रभटनागर से साफ़-साफ़ खरी बातचीत
वार्ताकार : डॉ. मनोज मोक्षेन्द्र

यद्यपि आपने काव्य-विधा के अतिरिक्त गद्य-विधाओं में भी बहुत-कुछ लिखा है; तथापि आपने अपने रचना-कर्म के लिए काव्य-विधा को ही प्रमुखता से क्यों चुना?

काव्य-विधा अधिक कलात्मक होने के कारण अधिक प्रभावी होती है। काव्य-कला को संगीत-कला और आकर्षण और सौन्दर्य प्रदान करती है। इससे उसके प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि होती है। संगीतबद्ध-स्वरबद्ध कविता पाठक-श्रोता को झकझोर देती है। जैसे, फ़कीरों-साधुओं द्वारा इकतारे पर गाये जाने वाले भजन हृदय को मथ देते हैं। कविता सहज ही कंठ में बस जाती है। उसमें चमत्कार का विशिष्ट गुण पाया जाता है। कविता की कथन-भंगी उसे भावों-विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना देती है। ध्वनि उत्कृष्ट कविता की पहचान है। शब्द-शक्ति का काव्य में ही सर्वाधिक उपयोग होता है। लक्षणा-व्यंजना ही नहीं, अभिधा भी पाठकों-श्रोताओं को आनन्दित करती है। द्रष्टव्य: ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!’ (सुभद्रा कुमारी चौहान) तुकों का भी अपना महत्व है। छंद, अलंकार, वक्रोक्ति, औचित्य आदि से उसमें निखार आता है। कविता मुर्दा दिलों में भी प्राण फूँक देती है। वह हमें उद्वेलित करती है। जन-क्रांतियों में कविता की भूमिका सर्वविदित है। द्रष्टव्य: ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!’ (रामधरीसिंहदिनकर) कवि को कला की उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए। माना बुनियादी तत्व भाव, विचार, कल्पना हैं।
मैंने कविता विधा के अतिरिक्त, गद्य विधाओं में भी लिखा ज़रूर है; किन्तु मेरा मन कविता में ही रमता है। वैसे मेरे द्वारा लिखित पर्याप्त आलोचना-साहित्य है। रूपक और लघुकथाएँ हैं।

आपने हिन्दी काव्य-साहित्य में आए सभी काव्यान्दोलनों के दौर में रचनाएँ की हैं; किन्तु मैं समझता हूँ कि आप उनसे प्रभावित हुए बिना स्वयं द्वारा निर्मित लीक पर चलते रहे। यही वजह है कि आपके रचना-सुलभ-कौशल का आकलन उनके दौर में आशाजनक रूप से नहीं किया गया; जबकि आपकी रचनाएँ तत्कालीन महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और पाठकों को आकर्षित भी करती रहीं। अस्तु, प्रकारांतर से क्या आप कभी उनके या उनके प्रवर्तकों के प्रभाव में आए? और यदि आए तो उन्होंने आपकी रचनात्मकता को किस प्रकार प्रभावित किया?

हाँ, यह सही है। विभिन्न काव्यान्दोलनों से मैं लगभग अप्रभावित रहा हूँ। कविता कविता है। उसे किसी भी प्रकार के साँचे में नहीं ढाला जा सकता। शाश्वत तत्व के साथ, कविता का सामयिकता से भी अटूट संबंध है। लेकिन, सामयिकता को स्व-विवेक से देखा-परखा जाना चाहिए। किसी भी रंग का चश्मा लगाने की ज़रूरत नहीं। वाद-ग्रस्त लेखन की अभिव्यक्ति ईमानदार नहीं भी हो सकती है। मैंने जो अनुभव किया; लिखा। मेरा काव्य, चूँकि प्रमुख रूप से, समाजार्थिक यथार्थ का काव्य है; अतः उसे वाम विचार-धारा से सम्पृक्त कर देखा गया। मेरे विचारों और वाम विचार-धारा में पर्याप्त साम्य हो सकता है। लेकिन, वह पुस्तकीय नहीं है। स्वयं का भोगा और सहा हुआ है। मेरा बचपन और यौवन काल बड़ी ग़रीबी में बीता। अल्प वेतन-भोगी अध्यापक की ज़िन्दगी जी मैंने। क़दम-क़दम पर कटु अनुभव हुए। मेरे काव्य में अन्याय और शोषण के विरुद्ध जो स्वर हैं; वे आरोपित नहीं। किसी राजनीतिक दल से मैं कभी नहीं जुड़ा। विभिन्नवादोंका कभी सैद्धान्तिक अध्ययन तक मैंने नहीं किया। समाजार्थिक-रचना और शासन-व्यवस्था संबंधी वैचारिक साम्य के कारण, प्रगतिवादी-जनवादी साहित्य-धारा मेरे मन के अनुकूल रही। तटस्थ-निष्पक्ष आलोचकों ने भी इसी काव्यान्दोलन के अन्तर्गत मेरी चर्चा की। वाम-आन्दोलन का समर्थक मान कर, कट्टर विचारों वालों ने भी मेरा विरोध नहीं किया। प्रवर्तकों ने मुझे साथ रखा। प्रगतिशील पत्रिकाओं में लिखता रहा। स्वतंत्र चिन्तन को असंगति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। मेरी रचनात्मकता का स्वरूप मेरा अपना है। वह किसी भी जड़वादीदिग्गजकी परवा नहीं करता।

आपकी रचनाओं में जिनइम्प्रेशन्सकी अदम्य बाढ़ उमड़ती है, उन्हें उस श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता, जिसमें रांमानी, छायावादी, रहस्यवादी, हालावादी कवि आते हैं। प्रयोगवादी काव्य-धारा में भी आप बहते हुए नहीं प्रतीत होते। वस्तुतः मानववाद को पोषित करते हुए आप सतत रचनाशील प्रगतिशील कवि हैं।  मात्र प्रगतिशील रचनाकार कहलाना अधिकांश कवियों  के लिए उतना संतोषप्रद नहीं होता, जितना अपने को किसी ख़ास आन्दोलन से जुड़ा रचनाकार मानने में। आप अपनी स्थिति से कितने संतुष्ट हैं?

हाँ, मानववाद की बात करना संगत है। रचनाकार का मात्र किसी विशेष आन्दोलन से जुड़ा होना मुझे तो भाता नहीं। कोई विचार-धारा सदा एक-सी बनी भी नहीं रहती। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। इसे विचार-धारा का विकास भी कहा गया है। लेकिन, देखने में कठमुल्लापन ही आता है। अतः, स्वतंत्र चिन्तन का विरोध करना युक्तियुक्त नहीं। प्रगतिशील चेतना मेरे काव्य का जीवन्त स्रोत है। इसी कारण, प्रगतिवादी-जनवादी काव्य-धारा के अन्तर्गत मेरे काव्य का अध्ययन अर्थवान है। कोई राजनीतिक दल रचनाकार को अपनी इच्छानुसार हाँक नहीं सकता। इस विवाद में मैं कभी पड़ा नहीं। श्रेय दो; चाहे दो। साहित्य के डिक्टेटर-आलोचक ही नहीं; स्वयं रचनाकार अपने बारे में चाहे जो कहे; उसने जो लिखा है, वह बोलेगा।

स्वातंत्रयोत्तर रचना-काल में युग-प्रवर्तक साहित्यकारों का बोलबाला रहा। आपने किसी के भी प्रभाव में आना पसंद नहीं किया। क्या यह प्रवृत्ति आपकेकविके उन्नयन-मार्ग में बाधक नहीं रही?

यह सही है, कुछ संकोच-वश तो कुछ स्वभाव-वश एवं कुछ पूर्व-परिचय होने के कारण , मैं उन साहित्यकारों से दूर रहा; और आज भी दूर रहता हूँ, जो समय-समय पर, नाना प्रकार की प्रकाशन-योजनाओं का नेतृत्व संचालन करते हैं। साहित्य के ऐसेविशिष्ट विधाताओंकी नज़र यदि मुझ पर भी पड़ी होती तो ज़रूर मैं इतना अनदेखा-अनजाना रहता। मेरा नाम सर्वत्र छूटता रहा। अधिकतर ऐसी परियोजनाओं के बारे में, अक़्सर उनका कार्यान्वय हो जाने के बाद पता चलता है। पूर्व-परिचय एवं व्यक्तिगत संबंध न होने के कारण ( मैत्री का तो प्रश्न ही नहीं!) किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया। मेरा कोई साहित्यिक वृत्त था, है। अधिकांश मुझे जानते नहीं। मेरी कृतियाँ उन्होंने पढ़ी क्या, देखी-तक नहीं! मेरा अता-पता भी उन्हें विदित नहीं। स्वाभाविक है, प्रभावी सूत्रधारों से कटे रहने का खामियाजा भुगतना पड़ा। भुगतता रहूंगा। पर, इसका कोई अफ़सोस नहीं। दुःख नहीं। दुनिया-भर के तमाम साहित्यकारों के साथ ऐसा हुआ है, होता रहेगा। क़सूर मेरा भी है; जो इतना बेख़बर रहता हूँ! प्रयत्न नहीं करता। इस दिशा में, ज़रा भी सक्रिय नहीं होता। अन्ततोगत्वा, इस प्रकार किसी का लुप्त रह जाना कोई मायने नहीं रखता। आपका लिखा तो लुप्त नहीं हुआ!

आप बच्चन, अज्ञेय, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर, शिवमंगल सिंहसुमनआदि जैसे रचनाकारों के दौर में साहित्य-सृजन करते रहे। क्या आपका इनसे कभी तालमेल रहा?

यह मेरी अग्रज वरिष्ठ पीढ़ी है। उम्र का बहुत अन्तर है।सुमनजी ने तो मुझेविक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियरमें बी.. में पढ़ाया। इस संदर्भ में, मेरी कृति साहित्यकारों से आत्मीय संबंध द्रष्टव्य है। यहपत्रावलीमहेंद्रभटनागर-समग्र— खंड - 6 में भी शामिल है। इससे समकालीन अनेक साहित्यकारों से मेरे संबंधों की रोचक जानकारी उपलब्ध होगी।

आपकी रचनाओं में वहप्रियकौन है; जिसकी उपस्थिति की आहट आज भी आपके गीतों में आती है?

वस्तुतः, यहप्रियकाल्पनिक है!! यौवन के प्रभाव के फलस्वरूप है। जो स्वाभाविक है। गुज़र गयी यह उम्र भी! भूल जाओ, यदि कहीं-कुछ आकर्षण रहा भी हो! आदमी जो चाहता है, वह उसे मिलता कहाँ है? स्मृति जीवन का बहुत बड़ा सम्बल है।

आप गीति-परम्परा के पोषक हैं। आपके गीतों में ध्वन्यात्मकता की जो तरल रसात्मकता आत्मा को आनन्द से सराबोर कर जाती है, वह आपके मनसे स्रवित हो, शब्दों में कैसे प्रतिबिम्बित हो पाती है?

गीति-रचना मेरे मनके निकट है। उल्लास और दर्द गीतों में स्वतः प्रस्पफुटित हो उठते हैं। गीत हों या नवगीत, संगीत के स्वरों पर थिरकते हैं। मन, जाने इतनी ऊँची उड़ान कैसे भर लेता है! हृदय, न जाने इतनी गहराई कहाँ से पा लेता है! सब, अद्भुत है! कल्पनातीत है। गीत, जीवन है! आदमी की पहचान है। मैंने गीत लिखा-रचा: गाओ!
       
        गाओ कि जीवन गीत बन जाए !

       हर क़दम पर आदमी मजबूर है,
       हर रुपहला प्यार-सपना चूर है,
       आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
       आस-सूरज दूर, बेहद दूर है,
              गाओ कि कण-कण मीत बन जाए !
             
       हर तरफ़ छाया अँधेरा है घना,
       हर हृदय हत, वेदना से है सना,
       संकटों का मूक साया उम्र भर
       क्या रहेगा शीश पर यों ही बना ?
                गाओ, पराजय — जीत बन जाए !
             
       साँस पर छायी विवशता की घुटन
       जल रही है ज़िन्दगी भर कर जलन
       विष भरे घन-रज कणों से है भरा
       आदमी की चाहनाओं का गगन,
              गाओ कि दुख संगीत बन जाए !
               
हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में विरचित आपकी कविताओं में प्यास और क्षुधा पर तुप्ति का, निराशा-हताशा पर अदम्य आशा का, कुंठा पर श्रम के उत्साह-उल्लास का, रूढ़ियों पर युगान्तरकारी आचार-व्यवहार का, त्रासदियों एवं प्राकृतिक आपदाओं पर परिवर्तनकारी सुखद घटनाओं का, मुत्यु पर अमर्त्य जीवन का विजयोन्मुखी संचार रहा है। आशावाद का ऐसा भाव-प्रवाह शेली और ब्राउनिंग की कविताओं में ही देखा जा सकता है। आपकी कविताओं में इन दोनों का सम्मिलित रूप प्रदर्शित होता है। क्या आपका यह स्वरूप आज़ादी के बाद की दुःखद परिस्थितियों की उपज था या उनसे प्रभावित आपकी लेखनी से उद्भूत एक विद्रोही का नव-निर्माणी स्वरूप?

अंधकार पक्ष से जूझना ही, विषम चुनौतियों से टकराना ही, पराजय से हतोत्साहित होकर उससे शक्ति ग्रहण करना ही, नियति-अनहोनी-अदृश्य को साहसिकता से झेलना ही जीवन को सार्थक बनाता है। सकारात्मक दृष्टिकोण स्वयं में एक ऐसा अप्रतिहत-अविजित दर्शन है, जो जीवन ओर जगत की समस्त चिन्ताओं को समूल उखाड़ फेँकता है। आदमी को कष्ट-सहन का अभ्यासी बनाता है. क्योंकि जीवन में सब अच्छा ही घटित नहीं होता। त्रासदियाँ जीवन की एक हिस्सा हैं।
शेली और ब्राउनिंग की मैंने कुछ ही कविताएँ पढ़ी हैं जो पाठ्य-क्रमों में निर्धारित रहीं। मेरे काव्य के संदर्भ में इन कवियों का उल्लेख प्रायः किया जाता है; किन्तु मैं अपनी अनभिज्ञता सदैव बताता रहा हूँ। हाँ, स्वातंत्र्य-संग्राम और स्वतंत्रता-पश्चात के परिदृश्यों का मेरे काव्य से अटूट संबंध है। संघर्ष और विद्रोह मेरे काव्य की अन्तर्वस्तु प्रारम्भ से ही रही।

राजनेताओं के विरूप-विद्रूप चेहरों, उनकी छलपूर्ण नीतियों और उनके द्वारा विकसित तंत्रों योजनाओं से आम आदमी को ठगने की उनकी कुप्रवृतियों का व्यापक रूप से भंडाफोड़ करने में आपने जिस निर्भीकता का परिचय दिया है; वह अन्यत्र दिखाई नहीं देता। आप इस देश में किस प्रकार की व्यवस्था की परिकल्पना करते हैं? क्या भविष्य में कोई बदलाव सम्भव है, जबकि आम आदमी कुंठा, अज्ञानता रूढ़ियों से जकड़ा हुआ स्वयं के तुष्टीकरण से ख़ामोश है और दबंग समर्थ उद्दंडता, वहशीपन, अनाचार, असभ्यता, तथा अपसंस्कृति के मध्ययुगीन जंगलों में लोलुप शिकारी की तरह कमज़ोर का शिकार कर रहे हैं।

शोषकों, पशुबल-समर्थकों और अत्याचारियों, पूँजीपतियों, धर्म और साम्प्रदायिकता के घिनौने चेहरों-रूपों पर पूरी ताक़त से प्रहार करने में, मैं कहीं नहीं चूका हूँ। मुझे इस बात से तोष है। नारी सशक्तीकरण की आवाज़ मेरी प्ररम्भिक रचनाओं तक में गूँज रही है। भविष्य में बदलाव आएगा; यदि युवा-शक्ति संगठित होकर जन-चेतना को उद्वेलित करे। देश में सच्चा जनतंत्र स्थापित होना चाहिए।

आज कविताओं के प्रति पाठकों का रुझान अत्यन्त निराशाजनक हो गया है। क्या कविता को अरुचिकर अलोकप्रिय बनाने में कविगण ज़िम्मेदार हैं? यदि ऐसा है तो आप उन्हें क्या सबक़ देना चाहेंगे; जिससे कि कविता पुनः पाठकों के हृदय और कंठ में रच-बस सके।

साधरण पाठक कविता समझ सके, यह ज़रूरी है। कवियों द्वारा इस ओर ध्यान दिया जाए; कविता पुनः लोकप्रिय हो जाएगी।

आपने पतनोन्मुख राष्ट्रीय संस्कृति को लेकर चिन्ताएँ व्यक्त की हैं। आदर्श राष्ट्रीय संस्कृति को पुनरुज्जीवित-पुनर्स्थापित करने के लिए नव-रचनाकारों की भूमिका क्या होनी चाहिए?

नव-रचनाकारों को हम कोई उपदेश देना नहीं चाहते। वे स्वयं जागरूक हैं।

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*Dr. Manoj Mokshendra
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*Dr. Mahendra Bhatnagar
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