रविवार, 22 जनवरी 2012

ताशकंद-प्रसंग / महेंद्रभटनागर



ताशकंद-प्रसंग
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महेंद्रभटनागर
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‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ में हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्यापन-हेतु, मेरे नाम पर विचार होगा; ऐसा कभी सोचा न था!
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एक दिन, अचानक, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, नई दिल्ली के सचिव का एक लिफ़ाफ़ा मिला; जिसमें ‘विक्रम विश्वविद्यालय’, उज्जैन के कुलपति को भेजे गये पत्र (16-17 जून 1977) की प्रतिलिपि थी :
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Dear Vice-Chancellor,
The Tashkant State University, USSR proposes to invite a few Indian specialists in Hindi Language & Literature and Urdu Language & Literature of work at that University. The assignment will be initially for a period of two years, extendable by mutual consent. Appointments will be made on deputation and the selected teachers will have the option to carry their own scale of pay and draw the same pay as they would have drawn in India. Other allowances and facilities will include foreign allowances, children allowance, furnished accommodation, medical facilities and to and fro air passage for the scholar and family (spouse and up to three dependent children only). The candidates would be required to appear before a Selection Committee for personal interview.
The ICCR had requested the University Grants Commission to intimate some teachers for this purpose. The UGC panel on Modern Indian languages has recommended Dr. Mahendra Bhatnagar, Government Postgraduate College, Mandsaur (M.P.) to be considered for assignment in USSR.
The University Grants Commission will be grateful if you kindly let me know whether you would agree to the above teacher being nominated for this purpose. If so, his bio-data in triplicate may be sent to the University Grants Commission urgently.
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Yours Sincerely,
R.K.Chhabra, Secretary : UGC
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यह पत्र मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। इन दिनों मैं ‘शासकीय महाविद्यालय, मंदसौर’; में प्रोफ़ेसर और हिन्दी-विभागाध्यक्ष था। कुछ दिन बाद ही, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति का पत्र (20 जून 1977) आया :
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प्रिय महेन्द्र,
अभी मैं 13 जून को, ताशकंद विश्वविद्यालय में हिन्दी और उर्दू के प्रोफ़ेसरों की नियुक्ति के संबंध में दिल्ली गया था। वहाँ मैंने संयोग से तुम्हारे नाम की सिफ़ारिश कर दी और आज मुझे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सचिव के पत्र से मालूम हुआ कि तुम उसके लिए चुन लिए गए हो। यह नियुक्ति शुरू में दो वर्ष के लिए होती है। इस संबंध में मुझसे तुम्हारी स्वीकृति माँगी गई है। अतएव तुम मुझे लौटती डाक से सूचित करो कि इस संबंध में तुम्हारी क्या मंशा है और यदि स्वीकार हो तो अपने संक्षिप्त जीवन-विवरण की तीन प्रतियाँ शीघ्रातिशीघ्र भेज दो।
आशा है, स्वस्थ और सानंद होगे। सस्नेह —
तुम्हारा सदा का,
(शिवमंगलसिंह ‘सुमन’)
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स्वीकृति-पत्र और स्ववृत्त ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति को जून 1977 माह में ही भेज दिया। तदनुसार, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति ने ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के सचिव को सूचित कर दिया (30 जून 1977 का पत्र):
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Dear Shri Chhabra,
Please refer to your D.O. No. F. 19-20/76 (CE) dated June 17, 1977, informing me about the selection of Dr, Mahendra Bhatnagar of Government Post Graduate College, Mandsaur, as specialist in Hindi language and literature in the Tashkant State University (USSR). He has accepted the offer and as desired, I am sending his bio-data, in triplicate, for necessary action at your end. With kind regards & thanks,
Yours sincerely / (S.M. Singh 'Suman')
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इस स्तर पर, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ का काम पूरा हो गया। अब सीधा संबंध ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली’ (ICCR) से प्रारम्भ हुआ। इस ‘परिषद्’ के उप-सचिव का, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के पत्र के समान ही, एक पत्र (अगस्त, 20, 1977) प्राप्त हुआ। ‘भा.सां.सं. परिषद’ को भी वांछित समस्त विवरण प्रेषित किये। निर्धारित प्रपत्र (क्र. 0072) भर कर भेजा।
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ऐसा लगा, ताशकंद जाना है। बड़े उत्साह से, रूसी भाषा पढ़नी-लिखनी सीखनी शुरू की। ‘रूसी-हिन्दी’ की कई पुस्तकें जगह-जगह से प्राप्त कीं। डा. भोलानाथ तिवारी जी से दिल्ली में मिला। उन्हीं के बाद, मुझे ताशकंद जाना था। डा. भोलानाथ तिवारी जी ने ताशकंद के अपने अनेक रोचक संस्मरण खुलकर सुनाये और राय दी कि मैं हिन्दी-व्याकरण बहुत अच्छी तरह से पढ़-समझ कर ही ताशकंद जाऊँ! उनके पूर्व, ताशकंद डा. रामकुमार वर्मा जी रह चुके थे। डा. रामकुमार वर्मा जी की भी, ताशकंद-संबंधी कुछ बातें उन्होंने बतायीं; जिससे वैसी भूलें मुझसे न हों।
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ताशकंद जाने का प्रस्ताव कोई गोपनीय तो था नहीं; अतः घनिष्ठ मित्रों को भी बताया।
पर्याप्त प्रतीक्षा के बाद, अचानक, अक्टूबर 1978 में, विदेश-मंत्रालय, नई दिल्ली के हिन्दी-अधिकारी श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी का निजी पत्र (दि. 16 अक्टूबर 1978) आया :
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प्रिय प्रो. महेंद्र भटनागर,
किसी प्रसंगवश अभी विदेश-मंत्री जी से चर्चा चली तो विदेश-मंत्री जी ने यह इच्छा प्रकट की कि आप कभी दिल्ली आ सकें तो अच्छा हो। मेरा अनुमान है कि विदेश-मंत्री जी दीपावली के पहले तक दिल्ली में हैं, सिर्फ 20 और 21 अक्टूबर को छोड़ कर। फिर भी, मेरा निवेदन है कि आप अपने दिल्ली आगमन की पूर्व सूचना मुझे भेज दें ताकि आपको विदेश-मंत्री जी से, दिल्ली आने पर, मिलने में कोई असुविधा न हो।
आपका
(बच्चूप्रसाद सिंह)
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सर्वविदित है, इन दिनों, विदेश-मंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी थे। श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी के पत्र का संदर्भ ताशकंद-प्रसंग होगा; ऐसा अनुमान सहज ही प्रतीत हुआ। उनका यह पत्र स्वयं में उत्साहवर्द्धक था।
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श्री अटलबिहारी जी के अल्पकालीन संसर्ग की पुरानी स्मृतियाँ ताज़ी हो गयीं। तैंतीस वर्षों से, किसी प्रकार का संबंध-सम्पर्क न होने पर भी मेरा स्मरण उन्हें रहा; इससे अपूर्व हर्ष और अपार तोष हुआ। भारत सरकार में विदेश-मंत्री होते हुए; उनका मुझसे मिलने की इच्छा प्रकट करना, उनके मानवीय गुणों का परिचायक है। राजनीति और साहित्य में ख्याति-लब्ध श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी से, इतने लम्बे अंतराल-बाद, मिलने दिल्ली जाना, सचमुच, मेरे लिए बड़ा रोमांचक था।
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निर्दिष्ट तिथियों को ध्यान में रख कर, शीघ्र ही, दिल्ली रवाना हुआ। दिल्ली में सर्वप्रथम पंडारा रोड-स्थित श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी के निवास पर पहुँचा। अपने पत्र भेजने का कारण उन्होंने बताया –
“फ़ाइल जब विदेश-मंत्री जी के समक्ष रखी तो उसे देख कर वे बोले —
‘डा. महेन्द्रभटनागर को जानते हैं ?’
मैंने कहा, ‘नहीं।’
वे तुरन्त बोले, ‘मैं जानता हूँ।’
इस पर मैंने कहा — ‘तो फिर निपटाइए; फ़ाइल बहुत दिनों से पड़ी है।’
इस पर उन्होंने कहा — ‘ऐसे नहीं। उन्हें बुलवाइए।’
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विदेश-मंत्री से मेरी भेंट अनौपचारिक व व्यक्तिगत थी। उसका कोई रिकार्ड नहीं रखा गया।
अगले दिन, निश्चित समय पर, ‘साउथ एवेन्यू’ पहुँचा। श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी ने, विदेश मंत्री के कक्ष तक पहुँचाया। साथ में, दिल्ली-निवासी मेरे अनुज डा. वीरेन्द्र भटनागर भी थे (भौतिकी के यशस्वी लेखक व प्रोफ़ेसर)। दिल्ली-जैसे महानगर में, मैं अकेला घूम-फिर नहीं सकता।
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वाजपेयी जी मिल गये।
औपचारिक अभिवादन-बाद; भाई का परिचय करवाया। सहज हलकी मुसकान उनके चेहरे पर बनी रही।
मैंने अपनी कविताओं के अंग्रेज़ी-काव्यानुवादों की दो ज़िल्दें उन्हें भेंट में दीं —
‘Forty Poems Of Mahendra Bhatnagar’
‘After The Forty Poems’
कुछ पृष्ठ वाजपेयी जी ने उलट-पलट कर देखे; हमारी उपस्थिति में।
‘ताशकंद’ की कोई चर्चा नहीं की।
तीन-दशक से अधिक-बाद मिला था। बातचीत में मर्यादा का ध्यान बराबर बना रहा। चाहता तो अधिक देर रुकता; विनोद-प्रसंग भी आते; अतीत का स्मरण भी करते। किन्तु डर था; अवांछित न कह बैठूँ ! ताशकंद जाने की स्वीकृति का प्रश्न था। इस अवसर पर अधिक आज़ादी से बात करना युक्तियुक्त न समझा।
भेंट गरिमापूर्ण और सार्थक रही।
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रात में श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी ने फ़ोन पर, कार्यसिद्धि का संकेत दिया।
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ताशकंद जाना सुनिश्चित हुआ। यथासमय, ग्वालियर लौट आया। श्री अटल जी से चूँकि उन्मुक्त वार्ता नही हो सकी; अतः कुछ रह गया; महसूस करता रहा !
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सन् 1978 गुज़रे कई माह बीत गये। ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ से कोई सूचना नहीं आयी। जून 1979 में दिल्ली गया। ‘परिषद’ कार्यालय में चेयर्स के प्रभारी श्री सरकार से मिला। उन्होंने बताया — सब ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ भेजा जा चुका है। आमंत्रण कभी भी आ सकता है। उसके बाद, चलने की तैयारी करें।
सरकार साहब ने बताया — समाजवादी देश अक्सर विलम्ब करते हैं। चलते समय, उन्होंने शीघ्र स्मरण-पत्र भेज देने का वचन दिया।
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लेकिन, फिर अनेक माह गुज़र गये। कहीं से कोई सूचना नहीं।
सन् 1979 के लगभग अंत में, पुनः ‘परिषद्’ कार्यालय पहुँचा। सरकार साहब ने बताया — ‘आपका प्रकरण ‘ठंडे-बस्ते’ में चला गया ! ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति का ताज़ा टेलेक्स आया है कि इन दिनों ताशकंद में आवासीय स्थान की तंगी है, अतः फिलहाल इस योजना को स्थगित कर रखा है।’
सरकार साहब ने कहा, ‘सोवियत संघ से आगे यदि कभी भी प्राध्यापकों की माँग आयी तो हम नया चयन नहीं करेंगे; आपको ही भेजेंगे।’
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अफ़सोस तो हुआ; लेकिन निराशा नहीं।
बाद में पता चला; डा. भोलानाथ तिवारी जी के बाद से, कोई भी हिन्दी-प्रोफ़ेसर ताशकंद नहीं गया। ताशकंद से ही, हिन्दी-अध्यापक और छात्र, हिन्दी भाषा और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने, ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली’ आते रहे; प्रवेश लेते रहे।
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माना, ताशकंद-प्रकरण ‘टाँय-टाँय फिस’ हो गया ! अर्थात् ‘लम्बी बातें, पर परिणाम कुछ नहीं ! धूमधाम से काम शुरू करना, पर अंत में, कुछ न हो सकना !’
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लेकिन जो हुआ; स्वयं में वह एक उपलब्धि है। इसे याद रखना चाहता हूँ। सबको बताना चाहता हूँ।
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डा. महेंद्रभटनागर,
110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म.प्र.]
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