गुरुवार, 18 अगस्त 2011

महेंद्रभटनागर की कविताएँ

महेंद्रभटनागर की कविताएँ

[1] भ्रष्टाचार

गाजर घास-सा
चारों तरफ़
क्या खूब फैला है !
देश को हर क्षण
पतन के गर्त में
गहरे ढकेला है,
करोड़ों के
बहुमूल्य जीवन से
क्रूर वहशी
खेल खेला है !
*
वर्जित गलित
व्यवहार है,
दूषित भ्रष्ट
आचार है।

[2] अंत

जमघट ठगों का
कर रहा जम कर
परस्पर मुक्त जय-जयकार !
*
शीतक-गृहों में बस
फलो-फूलो,
विजय के गान गा
निश्चिन्त चक्कर खा,
हिँडोले पर चढ़ो झूलो !
जीवन सफल हो,
हर समस्या शीघ्र हल हो !
*
धन सर्वस्व है, वर्चस्व है,
धन-तेज को पहचानते हैं ठग,
उसकी असीमित और अपरम्पार महिमा
जानते हैं ठग !
*
किन्तु;
सब पकड़े गये
कानून में जकड़े गये
सिद्ध स्वामी; राज नेता सब !
धूर्त मंत्री; धर्मचेता सब !
*
अचम्भा ही अचम्भा !
हिडिंबा है; नहीं रम्भा !
*
मुखौटे गिर पड़े नक़ली
मुखाकृति दिख रही असली !
*

[3] रक्षा

देश की नव देह पर
चिपकी हुई
जो अनगिनत जोंके-जलौकें,
रक्त-लोलुप
लोभ-मोहित
बुभुक्षित
जोंके-जलौकें —
आओ
उन्हें नोचें-उखाड़ें,
धधकती आग में झोंकें !
उनकी
आतुर उफ़नती वासना को
फैलने से
सब-कुछ लील लेने से
अविलम्ब रोकें !
देश की नव देह
यों टूटे नहीं,
ख़ुदगरज़ कुछ लोग
विकसित देश की सम्पन्नता
लूटे नहीं !
*
महेंद्रभटनागर
110, BalwantNagar, Gandhi Road,
GWALIOR — 474 002 [M.P.] INDIA
Ph. 0751- 4092908
E-Mail : drmahendra02@gmail.com

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