बुधवार, 29 जून 2011

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय — डा॰ महेन्द्रभटनागर

सहृदय आत्मीय मित्र

कामरेड डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

डा॰ महेन्द्रभटनागर



डा॰ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय जी का जन्म 7 जनवरी 1925 का है और मेरा 26 जून 1926 का। हम लगभग समवयस्क हैं।

डा॰ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय जी से मेरे संबंध बड़े प्रेमपूर्ण रहे। उनसे भेंट तो मात्र दो बार ही हो सकी — एक बार आगरा में; दूसरी बार ग्वालियर में। पत्राचार बराबर रहा। उनके जो कुछ पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं; उनके आधार पर उनके व्यक्तित्व की झलक प्रस्तुत कर रहा हूँ।

पत्र क्र. 1

सी-185, ज्ञान मार्ग, तिलकनगर, जयपुर - 4 राज.

दि. 27-7-73

प्रिय भाई,

आपका कृपापत्र।

मंदसौर के कारण आपकी मंदस्वीकृति मिली; इससे अबकी बार काम न चलेगा। 26 तथा 27 अगस्त को आप आ ही जाइए और वहीं संवर्तआदि लाइए। इससे आपकी कविता को भी लाभ होगा और हमें भी। क्योंकि हम आप कामरेड्स होने पर भी कभी मिल नहीं सके। यह बढि़या मौक़ा है। आपने अनुभव किया होगा कि आपके अलग-थलग रहने से आपकी ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। सो, कामरेड, अब इस कमी को पूरा कीजिए। वहीं भरतपुर में डट कर बातें करेंगे और सभी मित्रों से मिलना हो जाएगा। भोजन-निवास का प्रबंध है ही। सभी प्रगतिशील प्रमुख रचनाकार और कवि आ रहे हैं। उधर से और किन्हें बुलाया जाए, यह लिखें।

आपका ही,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

(डा. विश्वम्भरनाथ जी ने इतने प्रेम और आग्रह से भरतपुर-अधिवेशन में बुलाया; किन्तु खेद है, कुछ अपरिहार्य कारणों से, सम्मिलित नहीं हो सका; यद्यपि जाने की तैयारी पूरी थी। समुचित ध्यान न दिये जाने की शिकायत मैंने कभी किसे से नहीं की। इसकी मुझे इतनी चिन्ता कभी नहीं रही और न आज है। अनेक विद्वानों के आलेख; जो समय-समय पर छपे; पर्याप्त हैं।)

डा. उपाध्याय जी से एक बार आगरा में मिलना हुआ था — सन् स्मरण नहीं; किसी होटल में। दही की लस्सी साथ-साथ ली थी। दो-एक लोग उनके साथ और भी थे। तब डाक्टर साहब की कोई आलोचना-पुस्तक छपी थी; जिसमें एक स्थल पर मेरा मात्र नामोल्लेख था। इसका मैंने उनके सामने जि़क्र किया। सुनकर वे बोले, हम तो निष्पक्ष रहने में विश्वास करते हैं। किसी की उपेक्षा नहीं करते।फिर, काफ़ी समय बाद, डा. उपाध्याय जी से मिलने मैं एक बार उनके जवाहरनगर-स्थित मकान पर गया था। लेकिन तब वे जयपुर से बाहर गये हुए थे। उनके सुपुत्र डा. मंजुल मिले थे। जयपुर, एक शोध-छात्रा की मौखिकी लेने गया था; ‘विश्वविद्यालयके अतिथि-भवन में ठहरा था।)

पत्र क्र. 2

सी-185 ज्ञान मार्ग, तिलकनगर, जयपुर - 4 राज.

दि. 9-2-74

प्रिय बंधु,

उत्तरशतीका प्रकाशन कागज़ के अभाव में रुका हुआ है। जब वह निकलेगा तब देख लेंगे। आप उन्हें पत्र लिख दें कि वह मुझसे संवर्तका रिव्यू ले लें; याद दिला दें। मैं रुचि के अभाव से नहीं, समय के अभाव से पीडि़त हूँ। मैं यह महसूस करता हूँ कि आप पर अब लिखा जाना चाहिए। बल्कि, विश्वविद्यालयों में अनुसंधान भी हो सकता है; होगा भी। पर, उधर के लोग इस दिशा में पहल कर सकते हैं। मैं ग्वालियर में कुछ को लिखूंगा।

आचार्य विनयमोहन शर्मा आपकी कृतियों पर समीक्षा-पुस्तक का सम्पादन कर रहे हैं; यह प्रतिष्ठा का विषय है। आचार्यजी की उदारता का भी यह प्रमाण है। वैसे बूढ़े आचार्य समकालीन साहित्य में रुचि नहीं लेते; तिस पर भक्तिकालीन व्यक्तित्व वाले लोग।

विश्वम्भवरनाथ उपाध्याय

पोस्टकार्ड में और जगह बची नहीं।

(आचार्य विनयमोहन शर्मा जी-द्वारा सम्पादित समीक्षा-पुस्तक महेन्द्र भटनागर का रचना- संसारख्याति-लब्ध कथाकार श्री सतीश जमाली जी ने अपने प्रकाशन चित्रलेखा प्रकाशन’ (इलाहाबाद) से सन् 1980 में प्रकाशित की। यह मेरे काव्य-कर्तृत्व पर सम्पादित दूसरी पुस्तक है। प्रथम, प्रो. डा. दुर्गाप्रसाद झाला (शाजापुर — म.प्र.) के सम्पादन में रवीन्द्र प्रकाशन’, ग्वालियर से पूर्व में सन् 1972 में छप चुकी थी — महेन्द्र भटनागर : सृजन और मूल्यांकन।)

पत्र क्र. 3

7-ड-25, जवाहरनगर, जयपुर - 4 राज.

दि. 3-1-85

प्रिय भाई,

अबलौं नसानीकी ग्लानि दूर करने के लिए समीक्षा संलग्न। इसे टंकित कराके एक प्रति मुझे भेज दें; ताकि मैं उसे शुद्ध कर दूँ। सही टाइप हो नहीं सकता, प्रथम बार में। मेरा लेख गांधी जी से भी खराब है।

मुझे आगरा में 17 को और 18 को ग्वालियर में बैठकें अटेंड करनी थीं। आगरा से सुबह 18 को सात बजे की बस पकड़ कर भागे तो 11 बजे सीधे यूनीवर्सिटी जाना पड़ा — टोपों वाली गलीबस-अड्डे से दूर बताई गई अन्यथा आकर तब जाते। सो, यह रहा।

अगली बार शायद भेंट हो। आपको चाहिए था कि आप बैठक में 18/12 को अपराह्न तक आकर हमें टटोल लेते तो आपके साथ जाने की बात बन जाती। बैठक के बाद 18/12 को रात में — बहुत सबेरे उठ कर बाग मुज़फ़्फ़र खाँ, आगरा से बस के

अड्डे तक आना, बैठक में मगज़पच्ची, बिना नहाए-धोए, दिन-भर 18/12 की शाम तक थक गए। फिर नहीं पहुँच पाए टोपों की गली। सुबह भाग लिए। सवाल यह है कि आपको मेरा कार्यक्रम तो अज्ञात था, पर आप 18/12 को टटोलीकरण के लिए क्यों नहीं आए? तब आप मेरा अपहरण कर सकते थे।

आप प्रत्येक कक्षा के लिए पुस्तकें, प्रकाशकों के पते सहित, प्रस्तावित कर मुझे भेज दें। सभी प्रश्न-पत्रों के लिए। इससे सुविधा रहेगी।

(स्थानाभाव के कारण हस्ताक्षर तक नहीं!)

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय को, हमारे विश्वविद्यालय जीवाजी विश्वविद्यालय’ (ग्वालियर) के हिन्दी अध्ययन मंडलने, बाह्य विशेषज्ञ सदस्य के रूप में सम्मिलित किया था। अतः वे मंडलकी प्रथम बैठक में भाग लेने ग्वालियर आये थे। मेरी उनसे भेंट होनी थी। चूँकि, ठीक पूर्व में मैंमंडलका अध्यक्ष रह चुका था (तीन-वर्ष); इस कारण, नये सत्र में हो रही मंडलकी प्रथम बैठक वाले दिन, विश्वविद्यालय जाना मैंने उचित नहीं समझा। घर पर ही डा. उपाध्याय जी की प्रतीक्षा करता रहा। उन दिनों मैं टोपों वाली गली, जीवाजीगंज में रहता था; जहाँ डा. उपाध्याय जी एक बार मुझसे मिल चुके थे; जब वे किसी शोधार्थी की मौखिकी लेने ग्वालियर आये थे।

उपर्युक्त पत्र पढ़ कर , डा. उपाध्याय जी के प्रेम से गद्गद हो उठा ! बाद में, ऐसा लगा, कोई हर्ज़ न था; उस रोज़ डा. उपाध्याय जी से मिलने विश्वविद्यालय चला जाता। हालाँ कि डा. उपाध्याय जी ने मुझे इतना मान दिया; लेकिन मैंने उन्हें विचारार्थ प्रस्तावित पुस्तकों (नाटक, उपन्यास, खंडकाव्य आदि) की कोई सूची नहीं भेजी। पाठ्य-संकलन तो विश्वविद्यालयद्वारा हम पूर्व में ही तैयार करवा चुके थे; जिन्हें मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमीने प्रकाशित किया था।

डा. उपाध्याय जी ने उपर्युक्त पत्र में जिस समीक्षा का उल्लेख किया है; वह मेरे तेरहवें कविता-संग्रह जूझते हुएपर है। यह समीक्षा डा. हरिचरण शर्मा (जयपुर) द्वारा सम्पादित समीक्षा-पुस्तक सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्र भटगागरमें समाविष्ट है (पृ. 187-189 / प्र. बोहरा प्रकाशन, जयपुर)।

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय जी ने मेरी जितनी भी कविताओं को पढ़ा; ध्यानपूर्वक-रुचिपूर्वक पढ़ा। उनके प्रति न्याय किया। जूझते हुएकी कुछ कविताओं का मर्म वे इस प्रकार उद्घाटित करते हैं:

‘‘पूँजीवादी-सामन्ती संस्कृति और समाज के ढाँचे में ढला यह जो भारतीय मनुष्य है डा. महेन्द्रभटनागर की कविता उससे टकराती है, उसकी भूमिका,भाव, संवेदना, संस्कार, संस्कृति और उसकी समूची जीवन-पद्धति पर प्रश्न-चिह्न लगाती है और चूँकि यह आज़ादी के बाद का व्यक्तिवादी (समानवाद / समता / अपरिग्रह आदि की बात करता हुआ भी) मनुष्य, बुनियादी तब्दीली के लिए तैयार नहीं है; अतः महेन्द्रभटनागर का कवि कभी दुखी होता है (कश-म-कश’), कभी उदास होता है (प्रियकर’), कभी सुख-समागम के लिए कुछ क्षण जीने की आशा करता है (आमने-सामने’),कभी निस्संगता महसूस कर उसकी संवेदना पथराती है (निस्संग’), कभी वह प्रतीक्षा में वेदना को कुरेदता है (इंतज़ारतथा निष्कर्म’), कभी टूटता है (स्थिति’), कभी कवि व्यवस्थाजन्य असंगतियों-विसंगतियों-विकृतियों का सीधा वर्णन करता है (आदमी’), कभी संकल्प से अपने को निराशा से बचाता है (उत्तर’), कभी चतुर्दिक-व्यापी वतन का रेखाचित्र देकर सावधान करता है, जन एकजुट होकर लड़ें ऐसी प्रेरणा देता है, मज़दूरों का गीत गाता है और कभी वर्गहीन साम्यवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए शोषित जन को क्रान्ति का पाठ पढ़ाता है, मार्च-गीत गाता है।

... बहरहाल, महेन्द्रभटनागर की जनकवि के रूप में जो पहचान बनी है, वह अक्षुण्य रहेगी।’’

पत्र क्र. 4

कुलपति, कानपुर विश्वविद्यालय / दि. 27-5-91

प्रिय साथी,

आपका पत्र मिला। मुझे याद नहीं कि जीने के लिए शीर्षक का कविता-संग्रह मिला है कि नहीं। किताबें खोजकर समय मिलने पर लिखना चाहूंगा। किन्तु यहाँ समय नहीं मिलता है; इसलिए यह भी सम्भव है कि यहाँ से मुक्ति के बाद आप पर लिख पाऊँ।

शेष कुशल है।

भवन्निष्ठ,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

पत्र क्र. 5

जयपुर / दि. 6-8-98

प्रिय भाई,

आपका कृपापत्र। धन्यवाद।

आपने आजीवन जन-चेतना प्रेरक कवितात्मक लेखन किया है; यह अभिनन्दनीय है।

व्यस्तता वश आपके लिए लिखा नहीं जा सका। मेरे पास जो संग्रह हैं, उन्हें पुस्तकों के जंगल में खोजना होगा; खोजेंगे। आपकी इधर कोई रचना नहीं मिली है।

ग्वालियर-लश्कर क्षेत्र के साहित्यिक और सचेत साहित्य के प्राघ्यापक आपके अभिनन्दन के लिए कार्यक्रम आयोजित करें, तो भाग लूंगा।

पाठ्यक्रम पुस्तक व्यवसायी प्राध्यापकों, अध्यक्षों से मैं सदा दूर रहा हूँ और वेव्यवसायी भी हैं; अतः साहित्य में ही आपका गौरव-वर्धन हो तो बेहतर होगा।

शेष कुशल है। स्मरण के लिए आभार।

भवदीय,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

(‘राजस्थान विश्वविद्यालयसे संबंधित कोई काम था; इस कारण जयपुर के किसी प्रोफ़ेसर के बारे में पूछा था — नाम स्मरण नहीं। उनके बारे में डा. उपाध्याय जी की धारणा मेरे लिए अज्ञात थी। इस समय तक मेरे कर्तृत्व पर दो शोध-कार्य सम्पन्न हो चुके थे –

(1) ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’, ग्वालियर में / हिन्दी प्रगतिवादी काव्य के परिप्रेक्ष्य में महेन्द्रभटनागर का विशेष अध्ययन’ / शोधार्थी : कु. माधुरी शुक्ला / 1985; और

(2) ‘नागपुर विश्वविद्यालयमें / महेन्द्रभटनागर और उनकी सर्जनशीलता’ / शोधार्थी : श्रीमती मृणाल मैंद / 1990. विवरण शोध संदर्भ’ (भाग: 3) / सं. डा. गिरिराजशरण अग्रवाल (बिजनौर) में दृष्टव्य। )

प्रिय भाई,

आहत युगमिल गया। इसके बहाने आपका संक्षिप्त मूल्यांकन संलग्न है। इसका चाहे जहाँ उपयोग कर सकते हैं।

मेरा विचार है कि अब आपको सारे संग्रहों से चुनी हुई उत्कृष्ट रचनाओं का एक संग्रह प्रकाशित कराना चाहिए। उससे आपका भविष्य भास्वरित होगा। सोचिएगा। बहुत बड़ा नहीं। लगभग एक-सौ पृष्ठों का प्रतिनिधि रचनाओं का संग्रह पर्याप्त होगा।

फिर, ग्वालियर या अन्यत्र एक कार्यक्रम हो तब विवेचना हो।

शेष कुशल है।

मैं अपना एक जीवन-वृत्त भेज रहा हूँ।

भवदीय,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय में बड़ी ऊर्जा और आग देखी मैंने। प्रतिभा और श्रम का समन्वय है उनके व्यक्तित्व में। अनेक विधाओं में उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य रचना की है। व्यक्ति-रूप में वे एक बहुत ही अच्छे मित्र हैं। उदार व सहृदय। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में, एक विद्वान; किन्तु तटस्थ-निष्पक्ष आलोचक के रूप में उनकी छबि सर्वविदित है।

डॉ. महेन्द्रभटनागर,

110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म॰ प्र॰]

फ़ोन : 0751-4092908

ई-मेल : drmahendra02@gmail.com

गुरुवार, 16 जून 2011

रामविलास शर्मा : महेन्द्रभटनागर











मेरे साहित्यिक आदर्श डा. रामविलास शर्मा

डा॰ महेन्द्रभटनागर




प्रारम्भ से ही, साहित्य-लेखन के क्षेत्र में डा.रामविलास शर्मा जी ने मुझे प्रोत्साहित किया। उनसे मेरा परिचय सन् 1945 से है; जब मैंविक्टोरिया कालेज’, ग्वालियर में बी.ए. के अंतिम वर्ष का छात्र था। तब कालेज में, डाक्टर साहब का भाषाण आयोजित था। वे प्रो. शिवमंगलसिंह सुमनजी के निवास पर, गणेश कालोनी, नया बाज़ार, ठहरे थे। सुमनजी से उनके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उनके नियमित व्यायाम करने की बात; सुगठित स्वस्थ शरीर की बात। जैसा सुन रखा था, वैसा ही उन्हें पाया। सुमनजी से उनके संबंध बड़े घनिष्ठ थे। नितान्त अनौपचारिक। लँगोटिया-मित्र जैसे। उस रोज़ भी मेरे सामने दोनों बालकों की तरह परस्पर व्यवहार करने लगे। न जाने क्या हुआ, विनोद-विनोद में दोनों एक दूसरे को पकड़ कर ज़ोर आजमाइश-सी करने लगे। डाक्टर साहब सम्भवतः और सोना चाहते थे। उन्होंने सुमनजी को रोका और करवट लेकर फ़र्श पर लेटे रहे ! इतने में, बाहर सड़क पर से एक ताँगा लाउड-स्पीकर पर एलान करता निकला — सुमनजी के मुहल्ले से। एलान था, डाक्टर साहब के कार्यक्रम का। रामविलास जी उठे और बच्चों की तरह, अपने को महत्त्व देते हुए, सीने पर हाथ थपथपाते हुए बोले —देख लो, मेरे बारे में कहा जा रहा है।फिर, उसी रोज़, बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि श्री सुमित्रानंदन पंत, आमने-सामने हमेशा उनकी कविताओं की प्रशंसा करते रहे हैं; किन्तु उन्होंने पंत जी के काव्य की उनके समक्ष सदैव जम कर आलोचना ही की।

डा. रामविलास जी को देख कर और उनकी बातें सुन कर, उनके पहलवानी शरीर और बौद्धिक गाभीर्य का सारा भय व आतंक जाता रहा! वे तो बड़े हँसमुख व विनोदप्रिय निकले ! सब सहज-स्वाभाविक। कहीं कोई दिखावा नहीं। वस्त्र तक साधारण धारण करते थे। कोई सजावट नहीं। वे कार्यक्रम के प्रमुख थे; लेकिन कार्यक्रम में जाने के लिए कोई सज-धज नहीं। जाड़ों में कोट-पेण्ट अन्यथा बुशर्ट-पेण्ट पहनते थे। एक बार उनका भाषण अंग्रेज़ी में भी सुनने को मिला; अपने महाविद्यालय कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियरमें।

श्री. पद्मसिंह शर्मा कमलेश’, श्री. रांगेय राघव, डा. रामविलास शर्मा आदि से मिलने, सन् 1946 के आसपास, आगरा कभी-कभी चला जाता था। उन दिनों मेरी बड़ी बहन आगरा में थीं — बहनोई रेलवे में सर्विस करते थे। आगरा सिटी स्टेशन के पास उनका क्वार्टर था। डा. रामविलास जी गोकुलपुरा में रहते थे, श्री. रांगेय राघव बाग़ मुज़फ्फ़र खाँ में। कमलेशजी भी कहीं किसी गली में; फिर नागरी प्रचारिणी सभामें। ये अग्रज साहित्यकार ख़ूब प्रेम से दिल खोल कर मिलते थे।

सन् 1948-49 में, मैंने उज्जैन से सन्ध्यानामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया। इसके अंक - 2 में डा. रामविलास शर्मा जी ने भी अपना लेख दिया — हिन्दी-साहित्य की प्रगति-विरोधी धाराएँ। लेख का शेषांश अंक - 3 में छपना था; लेकिन फिर सन्ध्याका प्रकाशन ही बंद हो गया — प्रकाशक की इच्छा। यह लेख पर्याप्त हमलावर था; प्रमुख रूप से अज्ञेयजी की विचारधारा पर केन्द्रित था। रामविलास जी ने आश्वस्त किया था — सन्ध्याको मेरा सहयोग बराबर मिलेगा — कैसा भी वह सहयोग हो।

12 मई 1952 को मेरा विवाह हुआ। अपने अनेक साहित्यिक मित्रों को मैंने आमंत्रण-पत्र भेजे। डा. रामविलास जी को भी। डाक्टर साहब ने जो बधाई-पत्र भेजा; वह अपने में एकदम विशिष्ट था — निराला ! दाम्पत्य जीवन को उन्होंने साहित्य-रचना के लिए प्रेरक बताया। उन्होंने लिखा :

गोकुलपुरा-आगरा / दि. 6-5-52

प्रिय भाई महेन्द्र,

हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करो।

काव्य-प्रतिभा में वृद्धि हो, साहित्य के लिए नयी स्फूर्ति प्राप्त हो।

तुम्हारा,

रामविलास शर्मा

जितना डाक्टर साहब की कृतियों को पढ़ा; उनके लेखन से उतना ही प्रभावित होता गया। सरल भाषा, स्पष्ट दो-टूक अभिव्यक्ति, हमलावर तेवर, बीच-बीच में व्यंग्य का पुट आदि लेखन-संबंधी गुण उनके अपने हैं। उनके जैसा आलोचक हिन्दी में दूसरा नहीं। आलोचना करने में कभी-कभी वे कठोर भी हो जाते हैं। आलोचना विषयक उनके पास सही ऐतिहासिक दृष्टि एवं विचार-सरणि है। वहाँ न कठमुल्लापन है; न अनावश्यक उदारता। जो ग़लत है; उसका वे बेलिहाज़़ विरोध करते हैं।

सन् 1950 का समय रहा होगा। डा. रामविलास शर्मा के आलोचक पर मैंने एक आलोचनात्मक लेख तैयार किया। यह लेख अकोला-विदर्भ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका प्रवाहमें छपा। श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध जब उज्जैन में एक बार मुझसे मिलने मेरे निवास पर आये, तब उन्होंने इस लेख का भी जि़क्र किया और अपनी निराशा प्रकट की। वे मुझसे तगड़े लेख की अपेक्षा रखते थे। उनकी प्रतिक्रिया मस्तिष्क में आगे बनी रही। फलस्वरूप, आगे सुविधानुसार इस लेख को पुनरीक्षित-परिवर्द्धित किया और श्री. लक्ष्मीनारायण सुधांशुजी द्वारा सम्पादित मासिक अवन्तिका’ (पटना) में पुनः प्रकाशित करवाया। डाक्टर साहब ने इसे देखा-पढ़ा। इस संदर्भ में उनका पत्र इस प्रकार है :

गोकुलपुरा, आगरा / दि. 4-1-56

प्रिय भाई,

तुम्हारा 31/12 का कार्ड मिला। अवन्तिकामिल गई थी; लेख पढ़ लिया है। इधर मेरे विरुद्ध लिखने में ज़्यादा साहस की आवश्यकता नहीं रही; पक्ष में लिखना बहुतों के लिए दुस्साहस ही रहा। इसलिए बधाई।

मेरी समझ में प्रगतिशील आन्दोलन पर लिखते हुए हिन्दी साहित्य के विभिन्न युगों और साहित्यकारों के मूल्यांकन पर विभिन्न मतों का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए, तभी विचार-धारा के संघर्ष का महत्त्व स्पष्ट होगा।

वैसे मैं दैत्य नहीं हूँ, बौद्धिक भी नहीं। मेरी अनेक आलोचनाओं में Persuasive power की कमी रही है। इसलिए कविता की ओर भी ध्यान दे रहा हूँ।

रघुनाथ विनायक तावसे ने हंसमें एक बार मेरी कविताओं पर लेख लिखा था। मुझे अच्छा लगा था। क्या उनका पता तुम्हें मालूम है ? और गजानन माधव मुक्तिबोध का ? इधर दिल्ली गया था। नरेन्द्र शर्मा ने कई बहुत अच्छी कविताएँ लिखी हैं।

मेरी कौन-कौन-सी किताबें तुम्हारे पास हैं, लिख भेजो। बाक़ी भिजवा दूंगा।

तुम्हारा,

रामविलास शर्मा

डा. रामविलास शर्मा जी पर लिखा मेरा उपरि-निर्दिष्ट आलोचनात्मक लेख डा. नत्थन सिंह जी-द्वारा सम्पादित आलोचक रामविलास शर्मानामक पुस्तक में भी समाविष्ट है। आलोचना-समग्र में तो है ही। लेख में एक स्थल पर मैंने डा. रामविलास शर्मा जी को बौद्धिक दैत्यलिखा है! उसी के उत्तर में उन्होंने लिखा - वैसे मैं दैत्य नहीं हूँ; बौद्धिक भी नहीं।डा. रामविलास शर्मा जी के कवि-हृदय से सभी परिचित हैं। तार सप्तकके वे भी एक कवि हैं। रूप तरंगउनका प्रसिद्ध कविता-संग्रह है।

नई चेतनानामक अपने कविता-संग्रह की पाण्डुलिपि के साथ, एक बार, आगरा गया था (दि. 21-3-53)। डाक्टर साहब से भी मिलना हुआ — उनके निवास पर। रामविलास जी पलंग पर औंधे लेट कर लेखन-कार्य में रत थे। सिरहाने की तरफ़ कागज़ का बंडल था। नई चेतनाकुछ देर तक उन्होंने देखी; कुछ कविताएँ पढ़ीं और मेरे कहने पर तत्काल अपना अभिमत पृथक से लिख कर दिया :

श्री महेन्द्र नई पीढ़ी के प्रभावशाली कवि हैं। उनकी भाषा सरल और भाव मार्मिक होते हैं। उनमें एक तरफ़ जनता के दुख-दर्द से गहरी सहानुभूति है तो दूसरी तरफ़ उसके संघर्ष और विजय में दृढ़ विश्वास भी है। आशा और उत्साह उनकी कविता का मूल स्वर है।

यह संग्रह सन् 1956 में श्रीअजन्ता प्रकाशन, पटनासे प्रकाशित हुआ।

मार्च सन् 1954 की बात है। डा. रामविलास जी को, सन् 1953 में प्रकाशित अपना कविता-संग्रह बदलता युगभेज रखा था। इसकी भूमिका प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त जी ने लिखी थी। डा. रामविलास शर्मा जी से मैंने इस कृति पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। सोचा न था; इतना उत्साहवर्द्धक अभिमत वे लिख भेजेंगे:

कवि महेन्द्रभटनागर की सरल, सीधी ईमानदारी और सचाई पाठक को बरबस अपनी तरफ़ खींच लेती है। प्रयोग के लिए प्रयोग न करके, अपने को धोखा न देकर और संसार से उदासीन होकर संसार को ठगने की कोशिश न करके इस तरुण कवि ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी जि़न्दगी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करे।

महेन्द्रभटनागर की रचनाओं में तरुण और उत्साही युवकों का आशावाद है, उनमें नौजवानों का असमंजस और परिस्थितियों से कुचले हुए हृदय का अवसाद भी है। इसी लिए कविताओं की सचाई इतनी आकर्षक है। यह कवि एक समूची पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो बाधाओं और विपत्तियों से लड़कर भविष्य की ओर जाने वाले राजमार्ग का निर्माण कर रहा है।

महेन्द्रभटनागर की कविता सामयिकता में डूबी हुई है। वह एक ऐसी जागरूक सहृदयता का परिचय देते हैं जो अशिव और असुन्दर के दर्शन से सिहर उठती है तो जीवन की नयी कोंपलें फूटते देख कर उल्लसित भी हो उठती है।

कवि के पास अपने भावों के लिये शब्द हैं, छंद हैं, अलंकार हैं। उसके विकास की दिशा यथार्थ जीवन का चितेरा बनने की ओर है। साम्प्रदायिक द्वेष, शासक वर्ग के दमन, जनता के शोक और क्षोभ के बीच सुन पड़ने वाली कवि की इस वाणी का स्वागत ।—

जो गिरती दीवारों पर नूतन जग का सृजन करे

वह जनवाणी है !

वह युगवाणी है !

रामविलास शर्मा / दि. 26-3-54

सन् 1958 में, मेरा दूसरा स्केच-संग्रह / लघुकथा-संग्रह विकृतियाँप्रकाशित हुआ और सन् 1962 में नवाँ कविता-संग्रह जिजीविषा। इन पर भी उनकी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं :

30 नयी राजामंडी, आगरा / दि. 27-12-62

प्रिय भाई,

तुम्हारी प्रकृति-संबंधी कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगीं।

स्केच बहुत सुन्दर हैं। ख़ूब गद्य लिखो। अच्छे यथार्थवादी गद्य की बड़ी कमी है।

इधर समय न मिल पाने से आलोचना नहीं लिख पाता।

आशा है, प्रसन्न हो।

तु.

रामविलास शर्मा

फिर, सन् 1968 में मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवादों का एक विशिष्ट संकलन ‘Forty Poems Of Mahendra Bhatnagar’ प्रकाश में आया। डा. रामविलास शर्मा जी तो अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर रहे। उन्हें यह संकलन भी प्रेषित किया। इस पर उनके विचार प्राप्त हुए :

30 नयी राजामंडी, आगरा / दि. 13-3-68

प्रिय भाई,

‘Forty Poems’ की प्रति मिली। आपका 8/3 का कार्ड भी। पुस्तक का मुद्रण नयनाभिराम, कविताएँ युग चेतना और कवि-व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब, अनुवाद सरल और सुबोध हैं।

आशा है, प्रसन्न हैं।

आपका,

रामविलास शर्मा

सन् 1977 में बारहवाँ कविता-संग्रह संकल्पनिकला। इसे देख कर भी उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की दि. 5-4-77

प्रिय डा. महेन्द्रभटनागर,

आपका कार्ड मिला, कविता-पुस्तिका भी।

आप निरन्तर कविता लिखते जा रहे हैं, यह प्रसन्नता की बात है। पुस्तिका प्रकाशन पर बधाई। उसे भेजने के लिए धन्यवाद।

आशा है, आप सदा की भाँति स्वस्थ और प्रसन्न होंगे।

आपका,

रामविलास शर्मा

सन् 1980 में रामविलास जी को अपने महाविद्यालय कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’, ग्वालियर में आमंत्रित किया। अपने पत्र के साथ प्राचार्य श्रीमती रमोला चैधरी का पत्र भी भेजा। पर, रामविलास शर्मा जी पारिवारिक कारणों से न आ सके :

दि. 5-12-80

प्रिय भाई,

बहुत दिनों बाद आपका पत्र पाकर मन प्रसन्न हुआ।

मेरी पत्नी अस्वस्थ रहती हैं। इस कारण कई वर्ष से यात्रा कार्य बंद है। आपसे मिल कर सुख पाता, पर यह सम्भव नहीं है।

आप प्राचार्य जी को मेरी विवशता बता दें।

सस्नेह,

रामविलास शर्मा

फिर, डा. रामविलास शर्मा जी नई दिल्ली रहने लगे। सन् 1986 में अपनी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के संदर्भ में रामविलास जी को लिखा; इस उम्मीद से कि उनके माध्यम से कोई प्रकाशक मिल जाए; ‘राजकमलया कोई और। ताशकंद विश्वविद्यालयसंबंधी सूचना भी उन्हें दी। उत्तर में डा. रामविलास जी ने लिखा:

नई दिल्ली / दि. 22-12-86

प्रिय डा. महेन्द्र,

आपने ठीक लिखा है, कविता-संग्रहों के नये संस्करण छापने को प्रकाशक तैयार नहीं होते। कविता-संग्रह ही नहीं, गद्य पुस्तकों के नये संस्करणों के प्रति भी वे उदासीन रहते हैं। निराला की साहित्य साधना’ (3) का पहला संस्करण तीन साल पहले समाप्त हो गया था। नया संस्करण अभी तक नहीं निकला। इससे आप कल्पना करलें, ‘राजकमलपर मेरा प्रभाव कितना होगा। आप अपनी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के बारे में सीधे उनसे बातें करें।

ताशकंद में आप कार्य करने नहीं जा सके, खेद की बात है। सोवियत संघ के लोगों से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। इस दिशा में शायद डा. नामवर सिंह कुछ कर सकें।

शेष कुशल।

सप्रेम,

रामविलास शर्मा

समय तेज़ी से गुज़रता गया। रामविलास जी 86 वर्ष के हुए; मैंने 73 वें में प्रवेश किया।

सन् 1997 में, पंद्रहवाँ कविता-संग्रह आहत युगनिकला। रामविलास जी को देर - सवेर से प्रेषित किया। काँपते हाथों से लिखा उनका पत्र मिला:

दि. 3-12-96

प्रिय महेन्द्र जी,

आपने आहत युगछापी है, जान कर प्रसन्नता हुई।

आपने 72 पार किये; मैंने 86 पार किये।

शुभकामना सहित,

रा.वि. शर्मा

किसी-न-किसी बहाने डा. रामविलास जी से जुड़ा रहा। उन्होंने भी बराबर मेरा ध्यान रखा। उनका प्रेम मेरे साहित्यिक जीवन का सम्बल है। वे शुरू से ही मुझे महेन्द्रकहते रहे। इस पीढ़ी के अन्य घनिष्ठ अग्रज साहित्यकारों ने भी; यथा श्री जगननाथ प्रसाद मिलिन्द, डा. हरिहरनिवास द्विवेदी, डा. शिवमंगल सिंह सुमन’, डा. नगेन्द्र, डा. प्रभाकर माचवे आदि ने सदैव महेन्द्रही कह कर पुकारा। महेन्द्रअधिक आत्मीयता बोधक है। ऐसी आत्मीयता अब तो विरल है। महेन्द्रकह कर पुकारने वाले मेरे जीते-जी अधिक-से अधिक बने रहें; ऐसी अभिलाषा, जब-तब जाग उठती है !

डॉ. महेन्द्रभटनागर,

110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म॰ प्र॰]

फ़ोन : 0751-4092908

ई-मेल : drmahendra02@gmail.com

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