बुधवार, 17 मार्च 2010

जनपक्ष: शलाका को तमाचे के लिये आभार!

केदार जी…सच मानिये इस एक पुरस्कार को लौटा के आपने हमें वह ख़ुशी दी है जो सारे संकलनों को कई-कई बार पढ़कर नहीं मिलती। पहले पुरुषोत्तम अग्रवालने जब इस पुरस्कार को न लेने की घोषणा की तो ग्वालियर का रहवासी होने पर फ़क्र हो आया था…अब आपके निर्णय के बाद मूलतः पूरबिहा होने पर भी फ़क्र हो रहा है। विमल कुमार , प्रियदर्शन,रेखा जैन, पंकज सिंह, गगन गिल सहित सात साहित्यकारों के भी यही निर्णय ले लेने पर साहित्य-संस्कृति ग्राम के (नान रजिस्टर्ड सही) नागरिक होने के नाते सर ऊंचा हो गया।

सच कहुं तो कृष्ण बलदेव बैद कभी मेरे प्रिय लेखक नहीं रहे। परंतु उनकी अपनी एक शैली है, एक विशिष्ट भाषा और अपनी एक सबलाईम स्टाईल। चीज़ों को देखने का उनका नज़रिया क्रांतिकारी भले न हो लेकिन आधुनिक तो है ही।

अब यह एक विडंबना ही है कि उन्हें परखने का काम एक घोषित भांड को दिया गया है अब अश्लील चुटकुलों पर ठहाका लगाने वाले और अंग्रेज़ीदां राजनैतिक 'विद्वान' ( जिनके कहे हिंद स्वराज गांधी ने नहीं हाथरसी भांड ने लिखी थी) करेंगे तो उन्हें वह अश्लील और दोयम दर्ज़े के लगेंगे ही। सैमसंग से पुरस्कार लेने को आतुर हिन्दी बिरादरी के कलकतिया और दिल्लीवासी लेखकों को चुप रहकर उनकी हां में हां मिलाते देखना अब बुरा भी नहीं लगता। लेकिन जीवन भर रेडिकल विचारों का दामन थामे लोगों को उन्हीं से सम्मानित होते देख ज़रूर बुरा लग रहा था। अब इस निर्णय के बाद चैन आया है।

हम स्वागत करते हैं इन सब लेखकों का और इनका पुष्पहार-पैसा-प्रशस्तिपत्र के बिना हार्दिक सम्मान करते हैं